जीव को मन से जोड़ने की
कोशिशें बचपन से थी
बीच की दुरियाँ
कुछ इस कदर उलझा गई
हम जवां होते गए
जिज्ञासाऐं बढ़ती गईं
एक दिन चिन्तन में डुबी
आँखें थी खोई हुईं
उलझनों के शीर्ष को
आकार में रचती हुईं
युं लगा सहसा कोई
मुझे है पुकारती हुई
दुर की आवाज़ से
वह प्रश्न जीवन बन गई
मध्य की सारी दुरियाँ
पल भर में ही सिमट गईं
हैरान सी आँखें मेरी
आवाज़ थी तलाशती
दुर तक किसी शख्श को
ऊंचाई से निहारती
उन पलों में हो गई
आपसे मेरी दोस्ती
अब ये समझे हम सखी
आवाज़ थी वो आपकी