शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

जीवन और सखी

जीव को मन से जोड़ने की
कोशिशें बचपन से थी
बीच की दुरियाँ 
कुछ इस कदर उलझा गई
हम जवां होते गए
जिज्ञासाऐं बढ़ती गईं
एक दिन चिन्तन में डुबी 
आँखें थी खोई हुईं
उलझनों के शीर्ष को
आकार में रचती हुईं 
युं लगा सहसा कोई 
मुझे है पुकारती हुई 
दुर की आवाज़ से
वह प्रश्न जीवन बन गई
मध्य की सारी दुरियाँ 
पल भर में ही सिमट गईं 
हैरान सी आँखें मेरी 
आवाज़ थी तलाशती 
दुर तक किसी शख्श को
ऊंचाई से निहारती 
उन पलों में हो गई
आपसे मेरी दोस्ती 
अब ये समझे हम सखी 
आवाज़ थी वो आपकी